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  • उपकार प्रधान सेवा में उपकार करने की संतुष्टि मिलती है । प्रतिफल प्रधान सेवा में केवल प्रतिफल आंकलित होती है ।
  • उपकार = समृद्धि एवं जागृति के लिए सहायता, प्रेरणा ।
  • जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, मानव ने प्रयोग एवं उत्पादन से प्राप्त अर्थ यथा तन, मन और धन के सदुपयोग एवं सुरक्षा की कामना किया है ।
  • अर्थ का सदुपयोग एवं इसकी सुरक्षा केवल मानवीयता पूर्ण व्यवहार एवं विचार के आधार से ही संभव है । जिसके लिए मानव द्वारा विज्ञान एवं विवेक द्वारा व्यवस्था का निर्णय किया जाता है ।
  • समस्त भ्रमित मानव परम्परा में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं :-

(1) धर्मनैतिक व्यवस्था और (2) राज्यनैतिक व्यवस्था ।

  • सामाजिकता के संरक्षण के लिये दोनों व्यवस्थाओं का परस्पर पूरक होना अत्यावश्यक है।
  • जागृत मानव परंपरा में हर परिवार में प्राप्त अर्थ का सदुपयोग धर्मनीति के रूप में तथा सुरक्षा राज्यनीति के रूप में प्रमाणित होता है । यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का आधार है ।
  • # इस प्रकार धर्मनैतिक व्यवस्था तथा राज्यनैतिक व्यवस्था का क्षेत्र बिल्कुल ही स्पष्ट है । जब यह दोनों व्यवस्थाएँ एक दूसरे की पोषक अथवा पूरक न होकर, एक दूसरे की शोषक या एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगती है तभी सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है और अमानवीयतावादी विचार एवं व्यवहार को पुष्टि मिलती है । विकल्प के रुप में मानवीयता की आवश्यकता उदय होती है ।
  • अर्थ की सुरक्षा के लिए विधि एवं व्यवस्था पक्ष है । विधि आचरण में एवं व्यवस्था परस्परता में स्पष्ट है ।
  • विधि पक्ष की उपादेयता विवेक सम्मत वैयक्तिक एवं अखण्ड समाज अर्थ का पोषण, सद्व्यय परस्परता में तृप्ति के रूप में प्रमाणित होती है । उपरोक्तानुसार व्यवस्था की
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