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  • चैतन्य इकाई (गठनपूर्ण परमाणु) के मध्यांश को आत्मा, उसके प्रथम परिवेशीय अंशों को बुद्धि, द्वितीय परिवेशीय अंशों को चित्त, तृतीय परिवेशीय अंशों को वृत्ति तथा चतुर्थ परिवेशीय अंशों की मन संज्ञा है ।
  • # इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष रूप में सृष्टि चार अवस्था में हैं । इन चारों अवस्थाओं में परमाणुओं का मध्यांश मध्यस्थ क्रिया है, क्योंकि उस पर सम या विषम का प्रभाव नहीं पड़ता है ।
  • # गठनशील परमाणुओं में श्रम, गति एवं परिणाम घटित होता ही रहता है । परिणाम के अमरत्व के फलस्वरूप चैतन्य इकाई रूपी ‘जीवन’ में विश्रामानुभूति योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता पर्यन्त श्रम का अभाव नहीं है ।
  • पदार्थावस्था में सभी प्रजाति के परमाणु के अंतिम परिवेशीय अंश ही श्रम पूर्वक सक्रिय रहते हैं अथवा अग्रेषण क्रिया में रत हैं ।
  • क्षोभ :- क्षमता एवं योग्यता को श्रम में परिवर्तित करने पर जो ह्रास है उसकी क्षोभ संज्ञा है । यही पात्रता की अपूर्णता है ।
  • अग्रेषण :- क्षमता एवं योग्यता को श्रम में परिवर्तित करने में जो संतुलन अथवा पात्रता का अर्जन है उसकी अग्रेषण संज्ञा है ।
  • जड़ परमाणुओं में अंतिम एवं उसके पहले परिवेशीय अंश ही सक्रिय होकर श्रम पूर्वक यौगिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं । अग्रिम रचना प्राणावस्था के लिये अग्रेषित रहते हैं ।
  • जीवावस्था में शरीर रचनाएँ प्राण कोषा से ही रचित है और जीवन में वंशानुषंगी कार्य प्रवृत्ति रहती है । चैतन्य परमाणु (जीवावस्था) में चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय परिवेशों के अंश आंशिक रूप में सक्रिय रहते हैं और इससे श्रेष्ठ अभिव्यक्ति के लिए अग्रेषित रहते हैं ।
  • ज्ञानावस्था में भी शरीर रचना प्राण कोषाओं से ही है और जीवन जागृति क्रम में चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय परिवेशों के क्रियाशीलता विधि से साढ़े चार (4½) क्रियाओं को शरीर मूलक विधि से व्यक्त करता है ।
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