उपादेयता विधि के आशय को कार्यरूप प्रदान करने हेतु समझदार परंपरा को स्थापित करना है । विधि पक्ष का वैभव जागृत परंपरा में प्रमाणित होता है ।
- ● संपूर्ण सृष्टि जड़ एवं चैतन्य भेद से परिलक्षित है ।
- # चैतन्य पक्ष के अभाव में शरीर द्वारा किसी भी क्रिया का संपादन संभव नहीं है । मानव चैतन्य सृष्टि की विकसित इकाई है ।
- ● चेतना (ज्ञान) व्यापक है । चेतना पारगामी व पारदर्शी है, क्रिया शून्य है (तरंग व दबाव मुक्त है ।) चेतना व्यापक होने के कारण इकाई सिद्ध नहीं होती । चेतना सृष्टि के उत्पत्ति का मूल कारण सिद्ध नहीं होती क्योंकि चेतना परिणाम रहित है । सहअस्तित्व ही सृष्टि का मूल कारण है । चेतना में सम्पृक्त प्रकृति में ही समस्त परिणाम है । साम्य ऊर्जा मानव में, से, के लिए चेतना रुप में है ।
- ⁕ समस्त जड़-चैतन्य वस्तु ऊर्जा संपन्न रहने के लिए चेतना ही मूल कारण है । फलस्वरूप पदार्थ में क्रियाशील श्रम, गति, परिणाम पूर्वक विकासक्रम में सृष्टि बीज अर्थात् जीव-जगत (मानवेतर प्रकृति) के रूप में स्पष्ट हो चुकी है । इससे पदार्थ जगत में जीव-जगत का बीज रूप और फल रूप होना स्पष्ट हुआ । इसी के साथ मानव जीवन में जागृति बीज होना सुस्पष्ट हुआ, क्योंकि हर मानव जागृत होना चाहता है । यही सहअस्तित्व का प्रमाण है ।
- ⁕ सृष्टि की समस्त इकाईयाँ अपने पात्रता के अनुसार चेतना में प्रभावित है । इस प्रभाव का फल ही इकाईयों की अक्षुण्ण चेष्टा है । चेष्टा ही क्रिया के मूल में है और यही श्रम, गति और परिणाम का कारण है । श्रम, गति, परिणाम स्वरूप ही जड़ प्रकृति विकास क्रम में है और विकसित होकर चैतन्य प्रकृति (जीवन) के रूप में संक्रमित है । चैतन्य प्रकृति का मूल रूप गठनपूर्ण परमाणु है ।
- ⁕ मानव में बौद्धिक तथा भौतिक दोनों पक्षों का सम्मिलित रूप व्यवहार में पाया जाता है तथा शरीर के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली सभी क्रियाओं में यह दोनों अर्थात् बौद्धिक और भौतिक क्रियाएँ सम्मिलित पाई जाती हैं ।