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  • जागृति पूर्वक अनुभव मूलक विधि से पूरे दस क्रियाओं को प्रमाणित करता है । मानव शरीर रचना मानव परंपरा में ‘जीवन’ में होने वाली दसों क्रियाओं को प्रमाणित करने योग्य रहता है ।
  • ज्ञानावस्था में ईष्ट सेवन का लक्ष्य ईष्ट से तादात्म्य, तद्रूप, तत्सान्निध्य एवं तदावलोकन है। ईष्ट के नाम रूप, गुण एवं स्वभाव तथा साधक की क्षमता, योग्यता तथा पात्रता के अनुपात में सफल होती है ।
  • ईष्ट :- निर्भ्रान्त ज्ञान सहित स्वेच्छापूर्वक सहअस्तित्व के प्रति श्रद्धा, विश्वास एवं निष्ठा ही ईष्ट है ।
  • तादात्म्य, तद्रूप :- जागृति ही परम उपलब्धि होने के कारण तद्रूप, अनुभव बोध से तादात्म्य होना जीवन सहज तथा अनुभव सहज क्रिया है । सहअस्तित्व में अनुभव ही तद्रूप, तदाकार विधि है । क्योंकि नियम, नियन्त्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य, अनुभव के फलन में प्रमाणित होता है ।
  • तत्सान्निध्य :- तत्सान्निध्य का अर्थ सुख, शांति, संतोष, आनंद का सान्निध्य है ।
  • तदावलोकन :- सहअस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा ही तदावलोकन क्रिया है । सहअस्तित्व का दृष्टा जागृत जीवन ही है ।
  • जागृति को तत् शब्द से इंगित कराया है ।
  • ज्ञानावस्था की इकाई की समस्त क्रियाओं का लक्ष्य निर्बीजन व्यवहार की उपलब्धि है । निर्बीजन का तात्पर्य भ्रम मुक्ति और प्रमाण रूप में जागृति है । यही आचरण पूर्णता है ।
  • सबीजन होने का तात्पर्य :- शरीर को ‘जीवन’ मान लेना जबकि ‘शरीर’ भौतिक-रासायनिक वस्तु की रचना है । ‘जीवन’ गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई है तथा रासायनिक-भौतिक संसार का दृष्टा है ।
  • निर्बीजन व्यवहार भ्रम-मुक्ति की स्थिति में होता है ।
  • निर्बीजन व्यवहार में अमानवीयता से मुक्ति, मानवीयता का पोषण तथा अतिमानवीयतापूर्ण स्थिति का प्रमाण है ।
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