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  • शरीर की नश्वरता और ‘जीवन’ की अमरत्व व निरंतरता, कार्य-व्यवहार के नियमों की पूर्ण स्वीकृति व अनुभूति ही निर्बीज विचार है और तदनुसार व्यवहार ही निर्बीजन व्यवहार है । यही भ्रम मुक्ति है ।
  • निर्बीज विचार ही जीवन मुक्त की या दिव्यमानव की स्वभाव-सिद्ध वैचारिक प्रक्रिया है।
  • जीवन-मुक्त अर्थात् जीव चेतना एवम् भ्रम मुक्त मानव अर्थात् सहअस्तित्व में अनुभव सम्पन्न मानव में भूतकाल के स्मरण से तथा भविष्य की आशा से पीड़ा नहीं होती व वर्तमान से विरोध नहीं होता ।
  • भ्रम मुक्ति अथवा जागृति ही मध्यस्थ स्थिति व गति है । मध्यस्थ स्थिति प्राप्त करने में सम-विषम क्रिया के क्षोभ से मुक्ति है । जीवन में जागृति पूर्वक उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता, पूरकता विधियों से संतुष्ट होने की व्यवस्था है । जागृत जीवन में मध्यस्थ अर्थात् आत्मा अथवा अनुभव बोध विधि से ही संतुलित, संतुष्ट होना पाया जाता है ।
  • # जागृति क्रम में सर्वमानव रूप, बल, धन, पद के बढ़ने को सम क्रिया तथा इनके बने रहने को मध्यस्थ क्रिया व इनके घटने को विषम क्रिया के रूप में पहचाने रहते है । इस प्रकार जागृति क्रम में भ्रमवश सम व मध्यस्थ क्रियाएं सभी को स्वीकार रहती हैं तथा विषम अस्वीकार रहती हैं, इसलिए क्लेश में रहते हैं । जागृत मानव परंपरा में ‘जीवन’ का वैभव एवं महत्ता प्राथमिक हो जाते हैं तथा भौतिकताएँ द्वितीय हो जाते हैं तथा भौतिकता सहज सम, विषम, मध्यस्थ क्रियाएं नियंत्रित हो जाती हैं ।
  • क्षोभ ही दु:ख अथवा क्लेश है ।
  • क्षोभ या समस्या अथवा दु:ख के निवारण हेतु ही जीने की आशा जागृति पूर्वक प्रमाण आवश्यकता है ।
  • जीने की आशा में उद्भव, विभव एवं प्रलय समाविष्ट है । जीवावस्था के शरीर रचना, प्राणावस्था की रचना क्रिया है । इनमें विभव सबसे प्रिय है जो स्थायी नहीं है । भ्रमवश मानव विभव में ही बल, रूप, पद व धन के स्थायीकण के लिए प्रयास करता है, जो उसका स्थायी गुण न होने के कारण असफल है । उपरोक्तानुसार विभव काल की स्थिरता तथा इसमें की गई उपलब्धियों की स्थिरता सिद्ध नहीं होती । मानव का विभव जागृत परम्परा ही है ।
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